सतत विकास: समृद्धि और संरक्षण का साझा मार्ग !
अरावली पहाड़ियों की जिस परिभाषा को पहले माननीय सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया था, उसी पर अब रोक लगाकर नई उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समिति के गठन का आदेश देना स्वागत योग्य कदम है। वास्तव में,यह संकेत देता है कि पहले की रिपोर्ट को लेकर जो आम लोगों द्वारा जो आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं, वे निराधार नहीं थीं। अरावली को केवल पहाड़ियों की एक भौगोलिक श्रृंखला मानना भूल होगी, क्योंकि यह उत्तर भारत के उपजाऊ मैदानों को मरुस्थलीकरण से बचाने वाली एक जीवन रेखा है। सरकारी समिति की सिफारिश पर तय की गई परिभाषा से यह आशंका पैदा हुई थी कि अरावली का बड़ा हिस्सा संरक्षण से बाहर हो सकता है, जिससे खनन और निर्माण जैसी गतिविधियों को बढ़ावा मिलता। केवल यह कह देने से कि रिपोर्ट को गलत समझा जा रहा है, आम लोगों की चिंताएं दूर नहीं होतीं। आज जब देश गंभीर पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब नीति निर्धारण में स्पष्टता, पारदर्शिता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अत्यंत आवश्यक है। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वतः संज्ञान लेना यह दर्शाता है कि उसने जनहित और पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी चिंताओं को गंभीरता से समझा है।
अब उच्च स्तरीय विशेषज्ञों की समिति करेगी गहन अध्ययन:-
जानकारी के अनुसार अब विशेषज्ञों की समिति अलग-अलग समय की जानकारियों का अध्ययन करेगी। यानी पुरानी तस्वीरें, पुराने नक्शे और सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों की आपसी तुलना की जाएगी। इससे यह साफ होगा कि पिछले कुछ दशकों में अरावली पहाड़ियों में क्या-क्या बदलाव हुए हैं। उम्मीद है कि इस जांच से यह सच्चाई सामने आएगी कि अवैध खनन, बिना योजना के निर्माण और पेड़ों की कटाई ने इस बहुमूल्य प्राकृतिक धरोहर को कितना नुकसान पहुंचाया है।विवाद केवल 100 मीटर ऊँचाई तय करने को लेकर नहीं है। असल बात यह है कि पर्यावरण में छोटी-सी बात भी बहुत असर डालती है। किसी पहाड़ी को उसके आसपास के जंगल, पानी, मिट्टी और जीव-जंतुओं से अलग करके नहीं समझा जा सकता।अरावली को लेकर आम लोगों की कड़ी प्रतिक्रिया इसलिए आई, क्योंकि अब वहाँ पर्यावरण का बिगड़ना साफ दिखाई देने लगा है और उसका नुकसान सीधे लोगों को महसूस हो रहा है। इस वर्ष यानी कि वर्ष 2025 में देश के पहाड़ी राज्यों में आई विनाशकारी आपदाएँ, दिल्ली-एनसीआर और मुंबई जैसे महानगरों में लगातार जहरीली होती हवा कोई अचानक घटित घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि यह वर्षों से पर्यावरण के प्रति बरती गई लापरवाही और अदूरदर्शी नीतियों का सीधा परिणाम हैं। वास्तव में यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतनी गंभीर चेतावनियों के बाद भी शासन और समाज के स्तर पर पर्यावरण को लेकर अपेक्षित संवेदनशीलता और जिम्मेदारी का भाव स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देता।
उत्तराखंड में हजारों एकड़ वन भूमि पर अवैध कब्जों तथा राजस्थान के टिब्बी में राठीखेड़ा एथेनॉल फैक्ट्री मामला:-
एक ओर अरावली पर्वतमाला के संरक्षण को लेकर जनआंदोलन और विरोध-प्रदर्शन हो रहे थे, वहीं दूसरी ओर उत्तराखंड में हजारों एकड़ वन भूमि पर अवैध कब्जों का मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है, जिसमें राज्य में बड़े पैमाने पर वन भूमि पर अतिक्रमण का मुद्दा उठाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर स्वतः संज्ञान लेते हुए कहा कि राज्य सरकार वन भूमि की रक्षा करने में गंभीरता नहीं दिखा रही है। कोर्ट के समक्ष आए तथ्यों के अनुसार हजारों हेक्टेयर वन क्षेत्र पर अवैध निर्माण और कब्जे हो चुके हैं, जो पर्यावरण, जैव विविधता और हिमालयी पारिस्थितिकी के लिए गंभीर खतरा हैं। अदालत ने राज्य सरकार को अतिक्रमण हटाने, नई गतिविधियों पर रोक लगाने और विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत करने के निर्देश दिए हैं, और मामले की आगे भी निगरानी की जा रही है। उधर, लगभग इसी समय राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में (राठीखेड़ा) किसान एथेनॉल फैक्ट्री के खिलाफ इसलिए सड़कों पर थे, क्योंकि उन्हें अपनी ज़मीन, पानी और आजीविका पर संकट दिखाई दे रहा था। गौरतलब है कि राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के टिब्बी (टिब्बी) तहसील में इथेनॉल फैक्ट्री लगाने को लेकर ग्रामीणों और किसानों का लंबा विरोध प्रदर्शन हुआ, जो पिछले कुछ दिनों में यानी कि दिसंबर 2025 में हिंसक हो गया था, जिसमें पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़पें हुईं, आगजनी और तोड़फोड़ हुई; किसान फैक्ट्री से भूजल प्रदूषण, कृषि और स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव की आशंका जता रहे थे। वास्तव में वहां के किसान यह चाहते थे कि प्लांट को या तो स्क्रैप कर दिया जाए या किसी ऐसी जगह शिफ्ट किया जाए जहाँ कृषि को नुकसान न हो और पर्यावरण मानकों का पालन हो। मामले को तूल पकड़ता देख प्रशासन ने कुछ समय के लिए इंटरनेट सेवाएं बंद कर दीं और कई लोगों, जिनमें किसान नेता और कांग्रेसी विधायक शामिल थे, को हिरासत में लिया। यहां तक कि इस मुद्दे को लेकर सत्ताधारी और विपक्षी दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप भी हुए, जिसके बाद किसानों की मांगों को मानते हुए निर्माण कार्य रोका गया और कंपनी ने प्लांट को राजस्थान से बाहर शिफ्ट करने का फैसला किया। वास्तव में,ये घटनाएँ अलग-अलग स्थानों की होने के बावजूद एक ही सच्चाई को उजागर करती हैं कि विकास के नाम पर प्रकृति को लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा है और पर्यावरणीय संतुलन की कीमत आम जनता, किसान और आने वाली पीढ़ियाँ चुका रही हैं। जब तक नीति-निर्माण में पर्यावरण को केंद्र में रखकर ठोस और ईमानदार निर्णय नहीं लिए जाएंगे, तब तक ऐसी आपदाएँ और विरोध हमारे समय की स्थायी पहचान बनते चले जाएंगे।
विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन आज की अहम और महत्वपूर्ण आवश्यकता:-
अंत में यही कहूंगा कि यह सचमुच एक सकारात्मक संकेत है कि अरावली पर्वतमाला को लेकर सरकार, न्यायपालिका और जनता-तीनों स्तरों पर चिंता और सजगता दिखाई दे रही है। अरावली केवल पहाड़ियों की श्रृंखला नहीं, बल्कि उत्तर भारत के पर्यावरणीय संतुलन की रीढ़ है। इसका संरक्षण किसी एक संस्था की नहीं, बल्कि सामूहिक जिम्मेदारी है।नई गठित कमिटी से अपेक्षा है कि वह विषय को केवल विकास बनाम पर्यावरण के टकराव के रूप में नहीं देखेगी, बल्कि दीर्घकालिक राष्ट्रीय हित के दृष्टिकोण से परखेगी।यह बात ठीक है कि आज औद्योगिक विकास, आवासीय परियोजनाएँ, खनन गतिविधियाँ और आधारभूत संरचनाएँ, ये सभी बहुत आवश्यक हैं, लेकिन इनके लिए यदि प्राकृतिक ढांचे को ही कमजोर कर दिया जाए तो उसका खामियाजा निश्चित ही किसी न किसी रूप में हमारी आने वाली पीढ़ियों को ही भुगतना पड़ेगा और वे हमें इसके लिए कोसेंगी। वास्तव में कहना ग़लत नहीं होगा कि अरावली का महत्व केवल हरियाणा, राजस्थान और गुजरात तक ही सीमित नहीं है। यह रेगिस्तान के विस्तार को रोकने, भूजल रिचार्ज, जैव-विविधता संरक्षण और दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण नियंत्रण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अनियंत्रित खनन और अंधाधुंध निर्माण गतिविधियों ने पहले ही इस क्षेत्र को गंभीर नुकसान पहुँचाया है। ऐसे में कमिटी को यह चाहिए कि वह विभिन्न वैज्ञानिक तथ्यों, पर्यावरणीय रिपोर्टों, स्थानीय समुदायों के अनुभव और न्यायालय के निर्देशों सभी को समग्र रूप से ध्यान में रखे।यह बात हम सभी को ध्यान में रखनी चाहिए कि विकास की परिभाषा केवल ऊँची इमारतें, सड़कें, बड़े-बड़े पुल,बांध, सुरंगे और उद्योग नहीं हो सकते हैं। वास्तव में विकास तो वही है जो प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर आगे बढ़े। यदि आज हमने पर्यावरण को नजरअंदाज किया, तो कल वही विकास मानव जीवन के लिए संकट बन सकता है।इसलिए आज हमारे देश को एक ऐसे मॉडल की आवश्यकता है जहाँ विकास और पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक बनें, विरोधी नहीं। तथ्य तो यह है कि अरावली का संरक्षण इस संतुलन की परीक्षा है। यदि हम इसमें सफल होते हैं, तो यह न केवल एक पर्वतमाला की रक्षा होगी, बल्कि सतत और संवेदनशील विकास की दिशा में एक मजबूत कदम भी साबित होगा। दूसरे शब्दों में संक्षेप में यह बात कही जा सकती है कि अरावली पर्वतमाला की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय का हालिया रुख अत्यंत ही सकारात्मक व काबिले-तारीफ है। माननीय न्यायालय ने 20 नवंबर के अपने पूर्व निर्णय पर रोक लगाकर यह एकदम स्पष्ट कर दिया है कि अरावली की परिभाषा और संरक्षण को सीमित दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। अब नई, व्यापक और वैज्ञानिक परिभाषा तय करने की दिशा में कदम बढ़ाया गया है, ताकि पर्यावरण से किसी भी तरह का खिलवाड़ न हो।सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली से जुड़े मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर वास्तव में यह साफ व स्पष्ट संकेत दिया है कि इस विषय में गहन तथ्यान्वेषण जरूरी है। इसके लिए विशेषज्ञों की सहायता से एक उच्च-स्तरीय समिति गठित होगी, जो खनन, सीमांकन, मानचित्रण और नियमों की अच्छी तरह से समीक्षा करेगी। न्यायालय का यह स्पष्ट मत है कि खनन नियमों में ढिलाई अरावली को अपूरणीय क्षति पहुंचा सकती है। वहीं पर सरकार ने भी पूर्व आदेश की कमियों को स्वीकार किया है। केंद्र सरकार की ओर से यह सहमति जताई गई है कि अब अरावली क्षेत्र में खनन या नियमों में कोई भी बदलाव सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति से ही होगा। यहां तक कि यह भी माना गया है कि नवंबर के फैसले को लेकर कई गलतफहमियां थीं। माननीय न्यायालय का उद्देश्य विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना है। यह बात ठीक है कि आज के समय में खनन को पूरी तरह रोकना संभव नहीं है, फिर भी यह सुनिश्चित करना बहुत ही जरूरी और आवश्यक है कि इससे प्रकृति और मानव जीवन को खतरा न हो। अंततः, अरावली की रक्षा केवल न्यायालय या सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि आम नागरिकों की सतर्कता भी उतनी ही आवश्यक है, ताकि प्राकृतिक संसाधनों की अनियंत्रित लूट को रोका जा सके।
सुनील कुमार महला,
फ्रीलांस राइटर, कॉलमिस्ट व युवा साहित्यकार,
पिथौरागढ़, उत्तराखंड




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